फेफड़े के कैंसर से लड़ने के लिए तंबाकू पर रोक के बजाय नयी पद्धतियां कारगर: नोबेल पुरस्कार विजेता

नयी दिल्ली. अमेरिकी नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक हैरोल्ड वार्मस ने कहा है कि फेफड़ों के कैंसर से लड़ने के लिए नयी इम्युनोथैरेपी और निदान तकनीकों का विकास महत्वपूर्ण है और इसके लिए तंबाकू पर पूरी तरह रोक कारगर नहीं लगती, जो संभव भी नहीं है.

वार्मस ने 1989 में चिकित्सा के क्षेत्र में अमेरिकी इम्यूनोलॉजिस्ट माइकल बिशप के साथ नोबेल पुरस्कार जीता था. उन्हें यह सम्मान उन जीन उत्परिवर्तन की खोज के लिए दिया गया था जो किसी सामान्य कोशिका को ट्यूमर कोशिका में तब्दील कर सकते हैं और जिससे कैंसर हो सकता है.

भारत में और दुनिया में कैंसर से मौत का एक बड़ा कारक फेफड़ों का कैंसर है. इसके बारे में विस्तार से बातचीत में वार्मस ने कहा, ‘‘तंबाकू पर रोक लगाने की कोशिश करना पूरी तरह गलत है क्योंकि हम जानते हैं कि आप पूरी तरह पाबंदी लागू नहीं कर सकते. इस तरह की चीजों से अनेक तरह के अपराध होते हैं और यह कारगर नहीं होता.’’ हरियाणा के सोनीपत में अशोक विश्वविद्यालय में ‘पीटीआई-भाषा’ को दिये साक्षात्कार में वैज्ञानिक ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता कि प्रतिबंधों से बहुत असर होता है. लेकिन मेरा मानना है कि केवल भारत में नहीं, बल्कि अमेरिका, जहां हमारी 18 प्रतिशत आबादी धूम्रपान करने वाली है, उसके समेत हर देश में लोग सिगरेट के बजाय निकोटीन वैप (ई-सिगरेट) का इस्तेमाल कर रहे हैं. ये सभी कैंसर के जोखिम वाले कारक हैं.’’

भारत में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर संसद की स्थायी समिति ने अपनी ताजा रिपोर्ट में सिफारिश की है कि सरकार खुली सिगरेटों की बिक्री पर रोक लगाए. जब 83 वर्षीय वैज्ञानिक से पूछा गया कि क्या तंबाकू पर रोक से इस जानलेवा बीमारी की रोकथाम की जा सकती है, तो उन्होंने कहा, ‘‘नयी पद्धतियों और निदान तकनीकों पर जोर होना चाहिए, ना कि पूरी तरह प्रतिबंध पर.’’ वार्मस ने कहा कि 20 साल पहले फेफड़े के कैंसर के उपचार के लिए सीमित थैरेपी उपलब्ध थीं. उन्होंने कहा कि वह कैंसर अनुसंधान के क्षेत्र में विकास के प्रति आशान्वित हैं.

वील कॉर्नेल मेडिसिन में चिकित्सा के प्रोफेसर और न्यूयॉर्क जीनोम सेंटर में वरिष्ठ पदाधिकारी वार्मस ने कहा कि जब निदान की बात आती है तो दो प्रमुख प्रकार हैं. उन्होंने कहा, ‘‘पहला है किसी व्यक्ति के फेफड़ों में विकसित हुए आनुवंशिक बदलावों का पता लगाना जो बीमारी के कारक हैं. मैं इस बारे में विशेष रूप से जानकारी रखता हूं क्योंकि इस पर मैंने और मेरे सहयोगियों ने वर्षों तक काम किया है.’’ उन्होंने कहा, ‘‘और अब हमारे पास ऐसी दवाएं हैं जो उन उत्परिवर्तनों के प्रभावों को उलटने के लिए बहुत सटीक तरीके से काम करती हैं.

इन तथाकथित लक्षित दवाओं का कैंसर से पीड़ित किसी व्यक्ति के जीवनकाल में बहुत ही उल्लेखनीय लाभ हुआ है. ये उपचारात्मक नहीं हैं, लेकिन अत्यधिक फायदेमंद हैं.’’ वार्मस ने कैंसर निदान में आनुवंशिकी की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि भिन्न तरह के कैंसर होने का खतरा व्यक्ति के अलग-अलग वंश से होने पर भी निर्भर करता है.

वार्मस इंडियन एकेडमी आॅफ साइंसेज के निमंत्रण पर भारत आये हैं. वह कुछ व्याख्यान देने यहां आये हैं जो पहले 2020 में होने थे लेकिन महामारी के कारण नहीं हो सके. अगले दो सप्ताह में वह पुणे, ओडिशा और बेंगलुरु की यात्रा करेंगे और विज्ञान की प्रकृति तथा अपने कॅरियर में किये गये कार्यों के बारे में व्याख्यान देंगे. अमेरिका के नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के निदेशक रह चुके वार्मस ने फेफड़े के कैंसर के अनुसंधान में प्रतिरक्षा प्रणाली में बदलाव पर आधारित विभिन्न नयी इम्यूनोथैरेपी की भूमिका पर भी जोर दिया.

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