
नयी दिल्ली. केंद्र ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय को बताया कि 1970 से राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित 90 प्रतिशत विधेयकों को एक महीने के भीतर राज्यपालों की स्वीकृति मिल गई है, जबकि कुल 17,150 विधेयकों में से केवल 20 मामलों में ही राज्यपालों ने अपनी स्वीकृति रोकी है.
प्रधान न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने ‘राष्ट्रपति के संदर्भ’ पर सुनवाई करते हुए केंद्र के इस दलील पर आपत्ति जताते हुए कहा कि ”यह दूसरे पक्ष के लिए उचित नहीं होगा, क्योंकि उन्हें ऐसे किसी भी डेटा का संदर्भ देने की अनुमति नहीं है”. राष्ट्रपति संदर्भ में यह पूछा गया है कि क्या न्यायालय राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करने के लिए समय-सीमा निर्धारित कर सकता है.
केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता द्वारा संविधान के कामकाज पर इस तरह के डेटा प्रस्तुत करने का वरिष्ठ अधिवक्ताओं- कपिल सिब्बल और अभिषेक सिंघवी- ने भी कड़ा विरोध किया और कहा कि उन्हें पहले इसी तरह के डेटा प्रस्तुत करने से रोका गया था. सिब्बल और सिंघवी राष्ट्रपति के संदर्भ का विरोध करने वालों की ओर से पेश हो रहे हैं. मेहता ने कहा कि जिन 20 मामलों में सहमति रोकी गई, उनमें से सात विधेयक तमिलनाडु में हुए हालिया विवाद से संबंधित थे.
संविधान पीठ ने कहा, ”हमने उन्हें कोई भी डेटा दिखाने की अनुमति नहीं दी. यह उनके (राष्ट्रपति संदर्भ का विरोध करने वालों) के प्रति उचित नहीं है. जब वे अपने डेटा का उल्लेख करना चाहते थे, तब आपने (मेहता ने) आपत्ति जताई थी.” संविधान पीठ में न्यायमूर्ति गवई के अलावा न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल हैं. पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि वह केवल संवैधानिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करेगी.
नौवें दिन सुनवाई जारी रखते हुए पीठ ने कहा कि अदालत के सामने दो चरम स्थितियों के बीच संतुलन बनाने का एक ”बहुत बड़ा काम” है, क्योंकि एक स्थिति राज्यपाल को पूरी तरह से बाध्य मानती है और दूसरी स्थिति व्यापक विवेकाधिकार की अनुमति देती है.
मेहता ने विपक्ष शासित राज्यों के इस तर्क का विरोध किया कि राज्यपाल केवल निर्वाचित विधानसभाओं की इच्छा के संवाहक के रूप में कार्य करने के लिए बाध्य हैं. उन्होंने कहा कि राज्यपाल डाकिया नहीं होते और इस तरह की ”डाकिया उपमा” राज्यपालों की संवैधानिक भूमिका को एक ”सजावटी” स्थिति तक सीमित कर देती है.
उन्होंने कहा, ”उन्होंने तर्क दिया कि वह केवल एक डाकिया हैं, जिनमें केवल दो अंतर हैं, उनकी कार पर एक लालटेन और एक बड़ा घर. यह एक दोषपूर्ण संवैधानिक तर्क है.” मेहता ने आगे कहा, ”राज्यपाल का मूकदर्शक बनना और केवल एक रबर स्टैंप की तरह काम करना न केवल राज्यपाल की मूलभूत स्थिति का उल्लंघन होगा, बल्कि शपथ का भी उल्लंघन होगा.” उन्होंने आगे कहा कि अनुच्छेद 200 के अनुसार, जब कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल को या तो उस पर अपनी सहमति दे देनी चाहिए, या अपनी सहमति रोक लेनी चाहिए, या उसे राष्ट्रपति के लिए आरक्षित कर देना चाहिए, या विधानसभा को संदेश भेजकर वापस भेज देना चाहिए.
‘राष्ट्रपति के संदर्भ’ का विरोध करने वाले पक्षकारों का कहना है कि रोक लगाने का विकल्प एक अस्थायी विकल्प है और इसके बाद विधेयक को विधानसभा को वापस भेजने का विकल्प भी होना चाहिए. यह व्याख्या किसी भी मूल सिद्धांत के विपरीत है क्योंकि यह ‘रोकना’ शब्द के प्रयोग को पूरी तरह से भ्रामक बना देता है.” मेहता ने कहा कि राज्यपाल संवैधानिक रूप से विधायिका का हिस्सा हैं, भले ही उनके पास मताधिकार न हो, और विधायी प्रक्रिया तभी पूरी होती है जब अनुच्छेद 200 के तहत सहमति प्रदान की जाती है.
मेहता ने अर्ध-संघीय संवैधानिक ढांचे का उल्लेख करते हुए कहा, ”राज्यपाल सरकार का कर्मचारी नहीं है, न ही सत्तारूढ. दल का एजेंट है, न ही उसे राजनीतिक दलों के आदेशों के तहत कार्य करने की आवश्यकता है. ऐसे अवसर आ सकते हैं जब संघ और राज्य के हितों में टकराव हो, तो उसे निष्पक्ष, तटस्थ निर्णायक होना पड़ सकता है.” मुकदमों के रिकॉर्ड की मात्रा का उल्लेख करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ”यह 16,000-17,000 पृष्ठों का कार्य है… और दुर्भाग्य से कोई अवकाश भी नहीं है.” न्यायमूर्ति नाथ ने स्पष्ट किया कि रिकॉर्ड 25,000 पृष्ठों के हैं. पीठ ने कहा कि संविधान को एक “जीवित दस्तावेज.” के रूप में पढ.ा जाना चाहिए.
दूसरी ओर, न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने पूछा कि क्या यह मानना स्वीकार्य है कि जब संघवाद के ढांचे में संवाद की आवश्यकता हो, तो राज्यपाल सहमति रोक सकते हैं. सुनवाई के दौरान, कांग्रेस शासित तेलंगाना सरकार ने इस संदर्भ का विरोध किया और कहा कि सामान्यत? राज्यपाल परिषद की सहायता और सलाह से बंधे होते हैं. न्यायालय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए 14 प्रश्नों की पड़ताल कर रहा है, जिनमें यह भी शामिल है कि क्या संवैधानिक प्राधिकारी विधेयकों पर अनिश्चित काल तक स्वीकृति रोक सकते हैं और क्या न्यायालय अनिवार्य समय-सीमा लागू कर सकते हैं.