अरावली पहाडि़यों की परिभाषा: न्यायालय ने 20 नवंबर के निर्देश स्थगित रखने का दिया आदेश

पर्यावरणविदों ने न्यायालय के स्थगन आदेश का स्वागत किया, विशेषज्ञ नियुक्त करने की मांग की

नयी दिल्ली/जयपुर. उच्चतम न्यायालय ने अपने 20 नवंबर के फैसले में दिए गए उन निर्देशों को सोमवार को स्थगित रखने का आदेश दिया, जिसमें अरावली पहाडि़यों और पर्वतमाला की एक समान परिभाषा को स्वीकार किया गया था. इसने कहा कि कुछ ”महत्वपूर्ण अस्पष्टताओं” को दूर करने की आवश्यकता है, जिनमें यह भी शामिल है कि क्या 100 मीटर की ऊंचाई और पहाडि़यों के बीच 500 मीटर का अंतर पर्यावरण संरक्षण के दायरे के एक महत्वपूर्ण हिस्से को कम कर देगा.

भारत के प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत तथा न्यायमूर्ति जे.के. माहेश्वरी और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की अवकाशकालीन पीठ ने इस मुद्दे की व्यापक और समग्र समीक्षा के लिए इस क्षेत्र के विशेषज्ञों को शामिल कर एक उच्चस्तरीय समिति गठित करने का प्रस्ताव रखा. पीठ ने कहा कि प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि समिति की पिछली रिपोर्ट और फैसले में ”कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को स्पष्ट रूप से स्पष्ट करने में चूक हुई है” और अरावली क्षेत्र की पारिस्थितिकी अखंडता को कमजोर करने वाली किसी भी नियामकीय खामी को रोकने के लिए ”आगे की पड़ताल की सख्त जरूरत है”.

इसने यह भी निर्देश दिया कि 9 मई, 2024 के आदेश के अनुसार, अगले आदेश तक, 25 अगस्त, 2010 की एफएसआई रिपोर्ट में परिभाषित ‘अरावली पहाडि़यों और पर्वतमाला’ में खनन के लिए इसकी पूर्व अनुमति के बिना कोई अनुमति नहीं दी जाएगी.
पीठ ने कहा, ”पर्यावरणविदों में काफी आक्रोश देखने को मिला है, जिन्होंने नयी स्वीकार की गई परिभाषा और इस न्यायालय के निर्देशों की गलत व्याख्या और अनुचित कार्यान्वयन की संभावना पर गहरी चिंता व्यक्त की है.” इसने कहा कि यह सार्वजनिक असहमति और आलोचना अदालत द्वारा जारी किए गए कुछ शब्दों और निर्देशों में कथित अस्पष्टता और स्पष्टता की कमी से उत्पन्न होती प्रतीत होती है.

पीठ ने ‘अरावली पहाडि़यों और पर्वतमालाओं की परिभाषा एवं संबंधित मुद्दे’ शीर्षक वाले स्वत? संज्ञान मामले में पारित अपने आदेश में कहा, ”परिणामस्वरूप, अरावली क्षेत्र की पारिस्थितिकी अखंडता को कमजोर करने वाली किसी भी विनियामक कमी को रोकने के लिए आगे की जांच और स्पष्टीकरण की सख्त जरूरत है.” उच्चतम न्यायालय ने अरावली पहाडि़यों और पर्वतमालाओं की एक समान परिभाषा को 20 नवंबर को स्वीकार कर लिया था तथा विशेषज्ञों की रिपोर्ट आने तक दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान एवं गुजरात में फैले इसके क्षेत्रों में नए खनन पट्टे देने पर रोक लगा दी थी.

इसने विश्व की सबसे पुरानी पर्वत प्रणाली की सुरक्षा के लिए अरावली पहाडि़यों और पर्वतमालाओं की परिभाषा पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की एक समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया था. समिति ने अनुशंसा की थी कि अरावली पहाड़ी की परिभाषा अरावली जिलों में स्थित ऐसी किसी भी भू-आकृति के रूप में की जाए, जिसकी ऊंचाई स्थानीय भू-स्तर से 100 मीटर या उससे अधिक हो; और और ”अरावली पर्वतमाला” एक-दूसरे से 500 मीटर के भीतर दो या अधिक ऐसी पहाडि़यों का संग्रह होगा. सोमवार को पारित अपने आदेश में, पीठ ने उल्लेख किया कि इस फैसले के बाद समिति के निष्कर्षों और अदालत द्वारा दी गई बाद की मंजूरी को चुनौती देने वाले आवेदन और याचिकाएं उसके समक्ष आई हैं, साथ ही कुछ निर्देशों पर स्पष्टीकरण भी मांगा गया है.

इसने कहा, ”हालांकि हमारे पास इन बातों को प्रथम दृष्टया स्वीकार करने के लिए कोई वैज्ञानिक कारण नहीं हैं, न ही इन व्यक्तिगत दावों को प्रमाणित करने के लिए कोई ठोस सबूत या विशेषज्ञ साक्ष्य है, फिर भी, प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि समिति की रिपोर्ट और इस न्यायालय के निर्णय दोनों में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को स्पष्ट रूप से स्पष्ट करने में चूक हुई है.” पीठ ने कहा कि समिति की रिपोर्ट को लागू करने या 20 नवंबर के निर्देशों को क्रियान्वित करने से पहले, सभी आवश्यक हितधारकों को शामिल करने के बाद एक ”निष्पक्ष, तटस्थ, स्वतंत्र विशेषज्ञ राय” प्राप्त की जानी चाहिए और उस पर विचार किया जाना चाहिए.

शीर्ष अदालत ने कहा कि इस प्रकार का कदम महत्वपूर्ण अस्पष्टताओं को दूर करने और ऐसे सवालों पर निश्चित मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए आवश्यक है-जैसे कि क्या ‘अरावली पहाडि़यों और पर्वत श्रृंखलाओं’ की परिभाषा, जो विशेष रूप से दो या दो से अधिक अरावली पहाडि़यों के बीच 500 मीटर के क्षेत्र तक सीमित है, एक संरचनात्मक विरोधाभास पैदा करती है जिसमें संरक्षित क्षेत्र का भौगोलिक दायरा काफी हद तक संकुचित हो जाता है.

पीठ ने कहा कि परिणामस्वरूप, यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि क्या इस प्रतिबंधात्मक सीमांकन ने ‘गैर-अरावली’ क्षेत्रों के दायरे को विपरीत रूप से विस्तृत कर दिया है, जिससे उन भूभागों में अनियमित खनन और अन्य विघटनकारी गतिविधियों को जारी रखने में सुविधा हो रही है जो पारिस्थितिकी रूप से संस्पर्शी हैं लेकिन तकनीकी रूप से इस परिभाषा द्वारा बाहर रखे गए हैं.

इसने कहा, ”क्या 100 मीटर और उससे अधिक की ऊंचाई वाली अरावली पहाडि़यां, बीच की दूरी निर्धारित 500 मीटर की सीमा से अधिक होने पर भी, एक संस्पर्शी पारिस्थितिकी संरचना का निर्माण करती हैं?” न्यायालय ने कहा, ”क्या यह व्यापक रूप से प्रचारित आलोचना कि राजस्थान की 12,081 पहाडि़यों में से केवल 1,048 पहाडि़याँ ही 100 मीटर की ऊँचाई की सीमा को पूरा करती हैं, जिससे शेष निचली पर्वत श्रृंखलाओं को पर्यावरण संरक्षण से वंचित कर दिया जाता है, तथ्यात्मक और वैज्ञानिक रूप से सटीक है?” पीठ ने कहा कि यदि यह आकलन किसी महत्वपूर्ण नियामक खामी की सही पहचान करता है, तो यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि क्या एक व्यापक वैज्ञानिक और भूवैज्ञानिक जांच की आवश्यकता है.

इसने कहा, ”यह अध्ययन ऊपर बताए गए प्रश्नों की व्यापक और समग्र पड़ताल करेगा, और अन्य बातों के अलावा अनुशंसित परिभाषा के दायरे में आने वाले विशिष्ट क्षेत्रों की निश्चित गणना जैसे मापदंडों की भी पड़ताल करेगा. पीठ ने केंद्र, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा और गुजरात को नोटिस जारी किया तथा मामले की सुनवाई 21 जनवरी के लिए निर्धारित कर दी. इसने कहा, ”इस बीच, पूर्ण न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति और व्यापक जनहित में, हम यह आवश्यक समझते हैं कि समिति द्वारा प्रस्तुत सिफारिशों के साथ-साथ इस न्यायालय द्वारा 20 नवंबर, 2025 को दिए गए फैसले में निर्धारित निष्कर्षों और निर्देशों को स्थगित रखा जाए.”

पर्यावरणविदों ने न्यायालय के स्थगन आदेश का स्वागत किया, विशेषज्ञ नियुक्त करने की मांग की

अरावली की नयी परिभाषा का विरोध कर रहे पर्यावरणविदों ने सोमवार को उच्चतम न्यायालय द्वारा पर्वतमाला की पुनर्परिभाषा के अपने आदेश पर रोक लगाए जाने के कदम का स्वागत किया और मांग की कि इस मुद्दे का अध्ययन करने वाली नयी समिति में केवल नौकरशाहों के बजाय पर्यावरण विशेषज्ञ भी शामिल होने चाहिए.

पर्यावरणविद् भावरीन कंधारी ने कहा कि अरावली में जिस तरह से खनन हो रहा है, वह प्रशासनिक और शासन की विफलता है.
उन्होंने कहा, ”यह न्यायिक हस्तक्षेप बेहद जरूरी था. उच्चतम न्यायालय का निर्देश पर रोक लगाना एक स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि गठित होने वाली समिति में पारिस्थितिकीविदों और पर्यावरणविदों को शामिल किया जाए, न कि केवल नौकरशाहों को.” ‘पीपुल्स फॉर अरावली’ समूह की संस्थापक सदस्य नीलम अहलूवालिया ने न्यायालय के निर्देश को ”अस्थायी जीत” करार दिया.

उन्होंने कहा, ”हमारी असल मांग यह है कि सरकार अरावली पर्वतमाला में सभी खनन गतिविधियों को रोक दे. हमें लोगों के स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने वाले प्रभावों का संपूर्ण, विस्तृत और स्वतंत्र पर्यावरण एवं सामाजिक प्रभाव आकलन चाहिए, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि अरावली पर्वतमाला का कितना हिस्सा पहले ही नष्ट हो चुका है.” अहलूवालिया ने कहा, ”जब तक हमारी सभी मांगें पूरी नहीं हो जातीं और अरावली पर्वतमाला की जमीनी स्तर पर रक्षा नहीं हो जाती, तब तक हम पीछे नहीं हटेंगे.” पर्यावरणविद विमलेंदु झा ने उच्चतम न्यायालय के आदेश को ”अभूतपूर्व निर्णय” करार दिया.

उन्होंने पीटीआई-भाषा से कहा, ”शीर्ष अदालत द्वारा स्वत? संज्ञान लिया जाना और मामले की गुण-दोष के आधार पर सुनवाई करना… अपने ही आदेश को स्थगित करना, सरकार को इस मुद्दे पर पुर्निवचार करने और एक नयी समिति गठित करने का आदेश देना… यह एक अभूतपूर्व कदम है.” पारिस्थितिकी विशेषज्ञ विजय धस्माना ने कहा, ”अरावली की नयी परिभाषा पर बहस में रियल एस्टेट और खनन लॉबी सहित दो गुट हावी हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि अरावली की किसी भी भूवैज्ञानिक विशेषता को अभी तक परिभाषित नहीं किया गया है.”

राजस्थान में अरावली पर्वतमाला के संरक्षण के लिए काम कर रहे अग्रणी कार्यकर्ताओं के समूह ‘अरावली विरासत जन अभियान’ ने भी उच्चतम न्यायालय के फैसले पर संतोष व्यक्त किया. समूह ने एक बयान में कहा, ”यह आदेश अरावली पर्वतमाला के संरक्षण के लिए हमारे निरंतर अभियान में एक महत्वपूर्ण कदम है. हम इस प्राकृतिक धरोहर के संरक्षण के लिए अपना संघर्ष जारी रखेंगे.” केंद्र की नयी परिभाषा का विरोध करने वालों का कहना है कि यह पर्याप्त वैज्ञानिक मूल्यांकन या सार्वजनिक परामर्श के बिना दी गई है, जिससे हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में फैली अरावली पर्वतमाला के बड़े हिस्से में खनन का खतरा बढ़ सकता है.

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