आंकड़ों की कमी से किसानों की आय का पता लगाना मुश्किल: रमेश चंद
नयी दिल्ली. नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने कहा है कि किसानों की आय दोगुनी हई है या नहीं, इसका पता लगाने के रास्ते में कृषकों और अन्य स्रोतों से उनकी आय को लेकर आंकड़ों की कमी बाधा बनी हुई है. उन्होंने कहा कि किसान गैर-कृषि स्रोतों से अधिक कमाई कर रहे हैं. रमेश चंद ने यह भी कहा कि कृषि वस्तुओं की कीमतें किसी कानून के जरिये तय नहीं की जा सकती, क्योंकि इसके गंभीर प्रभाव हैं. यह न तो कृषि क्षेत्र और न ही किसानों के हित में हैं.
उन्होंने पीटीआई-भाषा से विशेष बातचीत में कहा, ”सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य तय किया था ताकि हम इसके लिए और अधिक प्रयास करें. इस लक्ष्य के हिसाब से हम कहां हैं, इसका आकलन करने की जरूरत है. लेकिन आवश्यक आंकड़े हमारे पास उपलब्ध नहीं है.” उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्च वाली सरकार ने 2016 में 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा था.
इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए रणनीतियों के बारे में सुझाव देने को लेकर अप्रैल, 2016 में अंतर-मंत्रालयी समिति बनायी गयी थी.
समिति ने सितंबर, 2018 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. सिफारिशों को स्वीकार करने के बाद सरकार ने प्रगति की समीक्षा और निगरानी के लिए एक ‘अधिकार प्राप्त निकाय’ की स्थापना की है.
इस मुद्दे पर विस्तार से बताते हुए, चंद ने कहा, ”हमारे पास किसानों को लेकर कोई आंकड़ा नहीं है…क्योंकि जब आप किसानों की आय की गणना करना चाहते हैं, तो आपको आंकड़े चाहिए.” जाने-माने कृषि अर्थशास्त्री ने कहा कि सरकार के पास 2018-19 के बाद गैर-कृषि स्रोतों से किसानों को होने वाली आय का आंकड़ा नहीं है.
उन्होंने कहा कि 2018-19 में छोटे और सीमांत किसान गैर-कृषि स्रोतों से अधिक कमाई कर रहे थे. उन्होंने कहा, ”अगर हमारे पास वह आंकड़ा होगा, तभी यह स्पष्ट होगा कि क्या हमने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य हासिल कर लिया है या नहीं.” विभिन्न फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कानूनी गारंटी की विभिन्न किसना संगठनों खासकर पंजाब के कृषकों की मांग से जुड़े सवाल के जवाब में चंद ने कहा कि अगर कृषि वस्तुओं की कीमतें कानूनी रूप से तय की जा सकती, तो किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए कोशिश में जुटे कई देशों ने इसे कानूनी रूप दे दिया होता.
उन्होंने कहा, ”कीमतें कानूनी तौर पर तय नहीं की जा सकतीं. इससे विभिन्न तरह समस्याएं पैदा हो सकती हैं…इसके काफी गंभीर प्रभाव होंगे. यह कृषि क्षेत्र या किसानों के हित में भी नहीं हैं.” चंद ने कहा कि अगर व्यापारियों को बिना मांग और आपूर्ति के समर्थन वाली कीमत पर गेहूं या चावल खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है, तो उठाव नहीं होगा.
उन्होंने कहा, ”सही मायने में आप किसी व्यापारी को वह कीमत चुकाने के लिए बाध्य नहीं कर सकते, जिससे व्यापारियों को लगता है कि इससे लाभ नहीं होगा.” चंद ने कहा कि जब सरकार किसी चीज (गेहूं या चावल) को फिर से उस कीमत पर खरीदती है जो मांग और आपूर्ति पर आधारित नहीं है, तो इसका आर्थिक प्रभाव होता है.
उन्होंने कहा, ”चावल और गेहूं के एमएसपी के मामले में भी यदि आप तुलना करते हैं कि सरकार की आर्थिक लागत क्या है और खुले बाजार की कीमत क्या है तो आप पाएंगे कि चावल के मामले में यदि आप 2,000 रुपये प्रति क्विंटल का भुगतान कर रहे हैं, तो आपको उसे बाजार में उतारने के लिए ही 800 रुपये का नुकसान उठाना पड़ेगा.” चंद ने यह भी कहा कि भारत अब कृषि पर विश्व व्यापार संगठन के समझौते का हिस्सा है. इस लिहाज से देश किसानों को कृषि उपज पर जो कुल समर्थन दे सकता है वह 10 प्रतिशत पर सीमित है.
उन्होंने कहा, ”हम चावल और गेहूं के मामले में समस्याओं का सामना कर रहे हैं. यह हमारे खाद्य सुरक्षा का मुद्दा है. इसीलिए, जटिलताएं हैं. अगर कीमत को वैध बनाने (फसलों के लिए एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी) से उद्देश्य पूरा होता, तो सरकार पहले ही ऐसा कर चुकी होती.” अमेरिका और अन्य देशों का तर्क है कि गेहूं और चावल के लिए भारत का एमएसपी समर्थन डब्ल्यूटीओ समझौते के तहत स्वीकार्य अधिकतम 10 प्रतिशत मूल्य समर्थन से अधिक है. भारत ने 2020-21 में अपना मूल्य समर्थन लगभग 15 प्रतिशत बताया था, लेकिन अमेरिका का दावा है कि यह समर्थन 93.4 प्रतिशत तक था.
यह पूछे जाने पर कि किसान फसल विविधीकरण अपनाएंगे तो क्या उन्हें अन्य फसलों पर सुनिश्चित मूल्य दिया जाएगा, चंद ने कहा कि राज्यों का अनुभव बताता है कि सबसे अच्छा विविधीकरण तब होता है जब किसानों को कोई सुनिश्चित समर्थन मूल्य नहीं दिया जाता है. उन्होंने कहा, ”सीधे तौर पर, एमएसपी से भी विविधीकरण नहीं होगा क्योंकि कई फसलें लाभदायक नहीं होती हैं. उनकी लाभदायकता चावल और गेहूं के बराबर नहीं है, भले ही आप उसपर एमएसपी देना शुरू कर दें.”