राजद्रोह संबंधी कानून का पुन: अध्ययन कराया जाएगा: केंद्र
नयी दिल्ली. केंद्र सरकार ने सोमवार को कहा कि उसने ‘उचित फोरम’ द्वारा राजद्रोह संबंधी कानून का ‘पुन: अध्ययन और उस पर पुर्निवचार कराने’ का फैसला किया है. औपनिवेशिक काल के इस दंडनीय कानून का बचाव करने के दो दिन बाद ही केंद्र के रुख में बदलाव नजर आया है. उधर सरकार ने उच्चतम न्यायालय से यह अनुरोध भी किया कि वह राजद्रोह के दंडनीय कानून की संवैधानिक वैधता का अध्ययन करने में समय नहीं लगाए.
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने शीर्ष अदालत में दायर एक हलफनामे में कहा कि उसका निर्णय औपनिवेशिक चीजों से छुटकारा पाने के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचारों के अनुरूप है और वह नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के सम्मान के पक्षधर रहे हैं तथा इसी भावना से 1,500 से अधिक अप्रचलित हो चुके कानूनों को समाप्त कर दिया गया है.
हलफनामे के अनुसार, ‘‘प्रधानमंत्री इस विषय पर व्यक्त अनेक विचारों से अवगत रहे हैं और उन्होंने समय-समय पर अनेक मंचों पर नागरिक स्वतंत्रता तथा मानवाधिकारों के सम्मान के पक्ष में अपना स्पष्ट रुख व्यक्त किया है.’’ इसमें कहा गया कि प्रधानमंत्री ने बार-बार कहा है कि विविधतापूर्ण विचारों का यहां बड़ी खूबसूरती से आकार लेना देश की एक ताकत है.
हलफनामे में कहा गया, ‘‘प्रधानमंत्री मानते हैं कि जब देश ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना रहा है तो हमें एक राष्ट्र के तौर पर उन औपनिवेशिक चीजों से छुटकारा पाने के लिए और परिश्रम करना होगा जिनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है और इनमें अप्रचलित हो चुके औपनिवेशिक कानून तथा प्रक्रियाएं भी हैं.’’
हलफनामे में कहा गया, ‘‘इसके मद्देनजर, बहुत सम्मान के साथ यह बात कही जा रही है कि माननीय न्यायालय एक बार फिर भादंसं की धारा 124ए की वैधता का अध्ययन करने में समय नहीं लगाए और एक उचित मंच पर भारत सरकार द्वारा की जाने वाली पुर्निवचार की प्रक्रिया की कृपया प्रतीक्षा की जाए जहां संवैधानिक रूप से इस तरह के पुर्निवचार की अनुमति है.’’ इससे पहले सात मई को दाखिल लिखित दलील में केंद्र ने राजद्रोह कानून को और इसकी वैधता को बरकरार रखने के एक संविधान पीठ के 1962 के निर्णय का बचाव करते हुए कहा था कि ये प्रावधान करीब छह दशक तक खरे उतरे हैं और इसके दुरुपयोग की घटनाएं कभी इनके पुर्निवचार को उचित ठहराने वाली नहीं हो सकतीं.
सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता के माध्यम से शीर्ष अदालत में दाखिल दलीलों में कहा गया, ‘‘किसी प्रावधान के दुरुपयोग के मामले कभी भी संविधान पीठ के एक बाध्यकारी फैसले पर पुर्निवचार करने का औचित्य ठहराने वाले नहीं हो सकते. इसका उपाय है कि मामला दर मामला आधार पर इस तरह के दुरुपयोग को रोका जाए, बनिस्बत इसके कि करीब छह दशक पहले एक संविधान पीठ द्वारा घोषित भलीभांति स्थापित कानून पर संदेह प्रकट किया जाए.’’
प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण और न्यायमूर्ति सूर्यकांत तथा न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने पांच मई को कहा था कि वह इस कानूनी प्रश्न पर दलीलों पर सुनवाई 10 मई को करेगी कि राजद्रोह पर औपनिवेशिक काल के दंडनीय कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं को केदारनाथ ंिसह मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के 1962 के फैसले पर पुर्निवचार करने के लिए बड़ी पीठ को भेजा जाए या नहीं. शीर्ष अदालत ने 1962 में राजद्रोह कानून की वैधता को बरकरार रखा था.
एडिटर्स गिल्ड आॅफ इंडिया और पूर्व मेजर जनरल एस जी वोम्बटकेरे की याचिकाओं पर विचार करने पर सहमति जताते हुए शीर्ष अदालत ने कहा है कि उसकी मुख्य ंिचता मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए ‘कानून का दुरुपयोग’ होना है. गृह मंत्रालय के अवर सचिव मृत्युंजय कुमार नारायण द्वारा दाखिल हलफनामे के अनुसार इस विषय पर अनेक विधिवेत्ताओं, शिक्षाविदों, विद्वानों तथा आम जनता ने सार्वजनिक रूप से विविध विचार व्यक्त किये हैं.
हलफनामे में कहा गया, ‘‘इस महान देश की संप्रभुता और अखंडता को बनाये रखने तथा उसके संरक्षण की प्रतिबद्धता के साथ ही यह सरकार राजद्रोह के विषय पर व्यक्त किये जा रहे अनेक विचारों से पूरी तरह अवगत है तथा उसने नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की ंिचताओं पर भी विचार किया है.’’ इसमें कहा गया कि सरकार ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के प्रावधानों का पुन: अध्ययन और पुर्निवचार करने का फैसला किया है जो सक्षम मंच पर ही हो सकता है.
राजद्रोह कानून के कुछ प्रावधानों के कथित दुरुपयोग को लेकर पिछले कुछ महीनों में इन पर काफी बहस हुई है. इसके मद्देनजर प्रधान न्यायाधीश ने सवाल उठाया था कि क्या यह कानून देश की स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी जरूरी है जिसका उपयोग स्वतंत्रता सेनानियों का उत्पीड़न करने के लिए अंग्रेजों ने किया था.
औपनिवेशिक काल के इस कानून के दुरुपयोग को लेकर इसे समाप्त करने की मांगों के बीच यह बात सामने आई है कि विधि आयोग ने 2018 में इस कानून पर पुर्निवचार करने या इसे निरस्त करने की वकालत की थी. कांग्रेस ने कहा है कि मोदी सरकार ने विरोध के स्वर को दबाने के लिए राजद्रोह के कानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया और शीर्ष अदालत की चेतावनी के बाद उसने पुर्निवचार का फैसला किया.