शिवसेना को कमजोर करना चाहती है भाजपा, शिंदे को मुख्यमंत्री बना ‘क्षेत्रीय भावनाओं’ पर किया कब्जा

नयी दिल्ली. शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र के अगले मुख्यमंत्री के तौर पर चुनने का भाजपा का फैसला चौंकाने वाला लग सकता है लेकिन यह हिंदूत्व के साथ ही उसके पूर्व सहयोगी के साथ परंपरागत तौर पर जुड़ी क्षेत्रीय भावना को भी अपने पक्ष में लाने के उद्देश्य को रेखांकित करता है. यह ऐसे समय में और अहम हो जाता है जब पार्टी की निगाहें 2024 के लोकसभा चुनावों और उसी साल राज्य में विधानसभा चुनावों की बड़ी लड़ाई पर टिकी हैं.

हिंदुत्व की एक अधिक निर्भीक छवि को प्रर्दिशत करने वाली शिवसेना की कभी कनिष्ठ सहयोगी रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अब वस्तुत: इसकी मालिक है और उसे उम्मीद है कि इस नई भूमिका में वह (शिंदे) क्षेत्रीय भावनाओं के साथ उसे जोड़कर पेश कर पाएंगे जिसे पूर्व में शिवसेना भुनाती रही है. हिंदुत्व और जातीय उप-राष्ट्रवाद से शिवसेना को दूर करने का यह रणनीतिक कदम उसे नुकसान पहुंचाने के भाजपा के प्रयासों को और बल देगा.

भाजपा के अंदरूनी सूत्रों ने कहा कि शिंदे गुट में से एक के सरकार में शीर्ष पर होने से और शिवसैनिकों व पार्टी पदाधिकारियों का समर्थन मिलने से उसे ज्यादा मजबूती मिल सकती है. शिंदे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शिवसेना जैसे दलों के प्रति सहानुभूति रखने वाली राज्य की सबसे प्रभावशाली जाति मराठा से आते हैं. ऐसे में भाजपा के पक्ष में इस समुदाय को भी शिंदे लुभा सकते हैं.

आने वाले हफ्तों और महीनों में शिवसेना के दोनों धड़ों में सियासी जंग और तेज होने की उम्मीद है . यह मामला अभी चुनाव आयोग तक भी जाएगा. ऐसे में जमीनी स्तर से उभरे मराठा राजनेता शिंदे को पार्टी के हिंदुत्व और जातीय उप-राष्ट्रवाद से जोड़ने वाली पहचान उद्धव ठाकरे की संभावनाओं पर असर डाल सकती है.

अपनी डॉक्टरेट की डिग्री के लिये शिवसेना का अध्ययन करने वाले महाराष्ट्र के राजनीतिक वैज्ञानिक संजय पाटिल ने कहा, ‘‘यह एक बहुत ही रणनीतिक कदम है. यह एक बहुत बड़ी रणनीति की योजना प्रतीत होती है, जिसका उद्देश्य शिवसेना को कमजोर करना और इसे ठाकरे के हाथों से निकालना है.’’ उन्होंने कहा, ‘‘शिवसेना के नारों, उसके लोगों और एक मराठा मुख्यमंत्री को नियुक्त करके, भाजपा महाराष्ट्र के इतिहास में ठाकरे ब्रांड के सामने सबसे कठिन चुनौती पेश कर रही है. ठाकरे को शिवसेना से अलग करने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन यह आसान नहीं होगा क्योंकि मराठी लोगों की कल्पना में शिवसेना और ठाकरे हमेशा एक रहे हैं.’’

उन्होंने कहा, ‘‘चूंकि शिवसेना की विचारधारा मोटे तौर पर दो आधारों पर टिकी थी : धर्म (हिंदुत्व) और क्षेत्र (मराठी मानूस), अब कोशिश यह है कि सब कुछ हिंदुत्व के बड़े आधार में समाहित हो जाए और यह स्थानीयता से बड़ा होना चाहिए.’’ एक विचार यह भी है कि भाजपा खुद पर कोई आंच नहीं आने देना चाहती क्योंकि मामला अब भी तकनीकी रूप से अदालत में है, और यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि शिवसेना के दो गुटों के बीच की लड़ाई राजनीतिक रूप से कैसे चलेगी, क्योंकि ठाकरे ब्रांड को बट्टे-खाते में नहीं डाला जा सकता.

भाजपा के इस कदम से उसके लिये भी चुनौतियां कम नहीं होंगी. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, जिन्हें राज्य में पार्टी का चेहरा और शिवसेना में विद्रोह के पीछे एक प्रमुख नेता के रूप में देखा जाता है, जाहिर तौर पर नेतृत्व की शिंदे की पसंद से खुश नहीं हैं..
उन्होंने घोषणा की कि वह नए मंत्रिमंडल का हिस्सा नहीं होंगे, लेकिन शीर्ष नेतृत्व द्वारा उन पर दबाव डाला गया. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि शिंदे, जिनके गुट में लगभग 50 विधायक (निर्दलीय सहित) हैं जबकि भाजपा के 106 हैं, सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं जिसकी अपनी खामियां हो सकती हैं.

विद्रोही गुटों के नेताओं या किसी बड़ी पार्टी के समर्थन से सरकार चलाने वाली छोटी पार्टी को राजनीतिक लाभ मिले-जुले रहे हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हमदर्द और तमिल राजनीतिक साप्ताहिक तुगलक के संपादक एस गुरुमूर्ति ने शिंदे को मुख्यमंत्री के रूप में चुनने के भाजपा के कदम की ‘‘रणनीतिक रूप से शानदार और राजनीतिक रूप से बड़े दिल वाले’’ के तौर पर सराहना की.
उन्होंने कहा कि शिवसेना में विद्रोह के पीछे भाजपा की साजिश को देख रहे राजनीतिक पंडितों को इससे झटका लगा है.

बगावत के बाद शिवसेना के लिए आगे की राह मुश्किलों भरी

एकनाथ शिंदे की बगावत और इसके परिणाम स्वरूप उद्धव ठाकरे के इस्तीफे के बाद शिवसेना अब राजनीतिक दोराहे पर है. शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे के 2012 में निधन के बाद पार्टी के समक्ष यह पहली बड़ी चुनौती है. बुधवार रात को पार्टी नेता उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की घोषणा की और कहा कि वह सेना भवन में पार्टी के कार्यकर्ताओं से मुलाकात करेंगे और संकेत दिए कि बगावत के चलते उन्होंने जो खोया है उसे फिर से हासिल करने की कोशिश करेंगे.

पार्टी से बगावत करने वाले नेता एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री के तौर पर शिव सैनिक पसंद कर सकते हैं,जिससे मुख्य पार्टी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. शिवसेना के 56वर्षों के इतिहास में पार्टी के भीतर कई बार बगावतें हुईं हैं और पार्टी के दिग्ग्गज नेताओं छगन भुजबल (1991), नारायण राणे (2005) और राज ठाकरे (2006)ने पार्टी छोड़ी हैं,लेकिन इस बार एकनाथ शिंदे की अगुवाई में हुई बगावत ने पार्टी को पूरी तरह से हिला कर रख दिया और उद्धव ठाकरे नीत सरकार गिर गई.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जब 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा का चुनाव जीता और स्वयं को हिंदुत्व के एकलौते संरक्षक के तौर पर स्थापित किया,वहीं से शिवसेना के पतन की कहानी शुरू हो जाती है. जब शिवसेना ने पुराना गठबंधन समाप्त करते हुए 2019 में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर महा विकास आघाड़ी सरकार बनाई तो इससे भाजपा क्रोधित हुई थी. राज्य सरकार के एक नेता ने स्वीकार किया कि शिवसेना के गढ़ कहे जाने वाले ठाणे, कोंकण और मराठवाड़ा क्षेत्रों में बगावत से असर पड़ा है.

राजनीतिक विश्लेषक वेंकटेश केसरी कहते हैं,‘‘जब भाजपा हिंदुत्व की एकलौती संरक्षक के तौर पर स्थापित हुई,तभी से शिवसेना के दिन कम होने शुरू हो गए थे. बस ये ही देखना था कि इसका पतन कैसे होता है लड़ते हुए या घिसते हुए.’’ वरिष्ठ पत्रकार एवं कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य कुमार केतकर ने कहा, ‘‘ महाराष्ट्र में शतरंज की बिसात बदल गई है. हो सकता है कि उद्धव तत्काल नहीं जीतें लेकिन उद्धव के साथ बालासाहेब की पहचान रहेगी जो उत्तराधिकारी होंगे और शिंदे को विश्वासघात करने वाले विद्रोही के रूप में देखा जाएगा.’’ केसरी ने कहा कि भाजपा अपनी दीर्घकालिक योजनाएं बना रही है और वह चाहती है कि हिंदुत्व के मुद्दे पर उसका एकाधिकार रहे.

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