नक्सल प्रभावित लोगों का पुनर्वास और शांति स्थापित करना राज्य और केंद्र का कर्तव्य: न्यायालय

नयी दिल्ली. उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि नक्सली हिंसा से प्रभावित छत्तीसगढ़ के निवासियों के पुनर्वास और शांति स्थापित करने के लिए पर्याप्त कदम उठाना राज्य और केंद्र का कर्तव्य है. इसी के साथ शीर्ष अदालत ने राज्य में सुरक्षा बलों और सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप वाले 18 वर्ष पुराने मामलों को बंद कर दिया.

न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर द्वारा दायर मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों और अवमानना सहित अन्य याचिकाओं को बंद कर दिया. इसमें न्यायालय के 2011 के आदेश का पालन न करने का दावा किया गया था, जिसमें राज्य में नक्सल विरोधी अभियानों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया था.

पीठ ने कहा, “हम पाते हैं कि छत्तीसगढ़ राज्य में दशकों से उत्पन्न स्थिति को देखते हुए, यह आवश्यक है कि क्षेत्रों में शांति और पुनर्वास के लिए विशेष कदम उठाए जाएं, जिन पर राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी ध्यान देने की जरूरत है, और उन्हें समन्वित तरीके से कार्य करना होगा.” इसने कहा, ह्लभारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 को ध्यान में रखते हुए, यह छत्तीसगढ़ राज्य और भारत संघ दोनों का कर्तव्य है कि वे राज्य के ऐसे निवासियों के लिए शांति और पुनर्वास सुनिश्चित करने के वास्ते उपयुक्त कदम उठाएं जो किसी भी पक्ष से उत्पन्न हिंसा से प्रभावित हुए हैं.”

छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 के अधिनियमन का उल्लेख करते हुए पीठ ने 15 मई के आदेश में कहा कि उसके विचार में इसे इस न्यायालय द्वारा पारित 2011 के आदेश की अवमानना नहीं कहा जा सकता. इस कानून के तहत राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने में सुरक्षा बलों की सहायता के लिए एक प्रशिक्षित बल का गठन किया गया था. पीठ ने कहा कि संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को केवल कानून बनाने के आधार पर अदालत की अवमानना? नहीं माना जा सकता.

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाने वाली रिट याचिकाओं के संबंध में पीठ ने कहा कि इन प्रार्थनाओं पर इस न्यायालय द्वारा विचार किया गया है तथा इन्हें 2011 के आदेश के रूप में स्पष्ट किया गया है. शीर्ष अदालत ने पांच जुलाई 2011 को सलवा जुडूम पर प्रतिबंध लगाने के संबंध में कई निर्देश पारित किए थे. सलवा जुडूम शब्द का प्रयोग भाकपा (माओवादियों) से लड़ने वाले सशस्त्र और प्रशिक्षित आदिवासी लोगों के समूह के लिए किया जाता है. साथ ही, इसके पुनर्वास के लिए भी निर्देश दिए गए थे.

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