लोकसभा चुनाव: बीते सालों में जमानत राशि जब्त कराने वाले उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी

नयी दिल्ली: देश में 1951 में हुए पहले लोकसभा चुनाव से लेकर गत आम चुनाव तक 71 हजार से ज्यादा प्रत्याशी कुल पड़े मतों का कम से कम छठा हिस्सा भी हासिल नहीं करने की वजह से अपनी ज़मानत जब्त करवा चुके हैं। निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के विश्लेषण से यह जानकारी मिली है।

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में 86 प्रतिशत उम्मीदवारों की ज़मानत जब्त हो गई थी। निर्वाचन आयोग के नियमों के तहत, जो उम्मीदवार कुल पड़े वैध मतों का छठा हिस्सा हासिल करने में विफल रहते हैं, उनकी ज़मानत राशि को जब्त कर लिया जाता है और राजकोष में जमा करा दिया जाता है।

पहले लोकसभा चुनाव से लेकर 2019 के आम चुनाव तक 91,160 प्रत्याशियों ने अपनी किस्मत आज़माई थी जिनमें से 71,246 प्रत्याशियों की ज़मानत जब्त हो गई थी। यह आंकड़ा कुल उम्मीदवारों का 75 प्रतिशत है।

साल 1951 में ज़मानत राशि सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए 500 रुपये और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (एससी/एससी) उम्मीदवारों के लिए 250 रुपये थी जो सामान्य श्रेणी और एससी/एसटी वर्ग के प्रत्याशियों के लिए अब बढक़र क्रमश: 25 हजार और 12,500 रुपये हो गई है।

राजनीतिक विश्लेषक का मानना है कि ज़मानत बचा लेना उम्मीदवारों के लिए गर्व की बात होती है, जबकि ज़मानत जब्त होने को अक्सर अपमानजनक माना जाता है।

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के प्रत्याशियों की ज़मानत जब्त हुई थी। बसपा ने 383 सीट पर प्रत्याशी उतारे थे जिनमें से 345 की ज़मानत जब्त हो गई थी। इसके बाद कांग्रेस आती है जिसने 421 सीट पर चुनाव लड़ा था और 148 सीट पर उसके उम्मीदवार अपनी ज़मानत गंवा बैठे थे।

आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के 51 उम्मीदवारों की ज़मानत जब्त हो गई थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के 49 में से 41 उम्मीदवारों की ज़मानत जब्त हुई थी।

साल 1951-52 में हुआ प्रथम लोकसभा चुनाव लड़ने वाले करीब 40 फीसदी उम्मीदवार अपनी ज़मानत राशि गंवा बैठे थे। वह चुनाव 1874 प्रत्याशियों ने लड़ा था जिनमें से 745 की ज़मानत जब्त हो गई थी।

इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में ज़मानत जब्त कराने वाले उम्मीदवारों की संख्या में इज़ाफा देखने को मिला। 11वीं लोकसभा के लिए 1996 में हुए चुनाव में किस्मत आज़माने वाले 91 प्रतिशत यानी 13,952 में से 12,688 उम्मीदवार अपनी ज़मानत गंवा बैठे थे। इस चुनाव में सबसे अधिक संख्या में उम्मीदवार मैदान में उतरे थे।

साल 1991-92 के लोकसभा चुनाव में 8749 में से 7539 प्रत्याशियों की ज़मानत जब्त हो गई थी जो 86 फीसदी था। साल 2009 के चुनाव में, 8070 में से 6829 यानी 85 प्रतिशत प्रत्याशियों की ज़मानत जब्त हुई थी। वहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव में 8251 उम्मीदवारों में से सात हजार की ज़मानत जब्त हो गई थी। यह बताता है कि ज़मानत जब्त होना लोगों की लोकसभा चुनाव लड़ने की इच्छा पर प्रतिकूल असर नहीं डालता है।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के संस्थापक सदस्य और ट्रस्टी जगदीप एस छोकर ने कहा कि समाज के कुछ वर्गों के लिए अब पैसा कोई अहमियत नहीं रखता है और अमीर तथा गरीब के बीच इतना विभाजन है कि बहुत से लोग बिना किसी ठोस आधार के चुनाव लड़ते हैं।

उन्होंने ’पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘ ज़मानत राशि के जब्त होने के बावजूद कुछ लोगों द्वारा चुनाव लड़ने का कारण यह है कि लोग इसे वहन कर सकते हैं और ज़मानत गंवाना कोई बड़ी बात नहीं है।ह्व ऐतिहासिक रूप से, राष्ट्रीय दलों के उम्मीदवारों ने अपनी ज़मानत राशि बचाने में अच्छा प्रदर्शन किया है। 1951-52 में पहले लोकसभा चुनावों में, राष्ट्रीय दलों के 1,217 उम्मीदवारों में से 28 प्रतिशत या 344 की ज़मानत जब्त हो गई।

साल 1957 में हुए अगले चुनावों में इसमें सुधार हुआ जब 919 उम्मीदवारों में से सिर्फ 130 या 14 प्रतिशत उम्मीदवारों की ज़मानत जब्त हुई। वर्ष 1977 के चुनावों में राष्ट्रीय दलों का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन देखने को मिला क्योंकि इन दलों के 1,060 उम्मीदवारों में से सिर्फ100 (नौ प्रतिशत) की ज़मानत जब्त हुई थी।

साल 2009 का आम चुनाव राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशियों के लिए अच्छा नहीं रहा और इन दलों के करीब करीब हर दूसरे उम्मीदवार की ज़मानत जब्त हो गई। उस साल हुए चुनाव में राष्ट्रीय दलों के 1623 में से 779 उम्मीदवार अपनी ज़मानत राशि गंवा बैठे।

दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध जीसस एंड मैरी कॉलेज के राजनीतिक विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर सुशीला रामास्वामी ने कहा कि भारत में लोगों को राजनीतिक मुद्दों में खासी रूचि रहती है, इसलिए वे चुनावों में अपनी किस्मत आज़माते हैं।

उन्होंने कहा, ह्ललेकिन कई मामलों में देखा गया है कि यह अन्य उम्मीदवारों के वोट काटने के लिए होता है। वे छद्म, निर्दलीय उम्मीदवार होते हैं जिनका समर्थन अन्य दल करते हैं ताकि जीत के अंतर को कम किया जा सके।

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