निरर्थक औपनिवेशिक प्रथाओं से छुटकारा पाना न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत होना चाहिए: मुर्मू

नयी दिल्ली. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मंगलवार को कहा कि समान न्याय सुनिश्चित करना और निरर्थक औपनिवेशिक प्रथाओं से छुटकारा पाना देश की न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत होने चाहिए. मुर्मू ने यहां एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि वह उन लोगों के विचारों से सहमत हैं, जो ‘स्वतंत्र भारत के विवेक-रक्षक के रूप में न्यायालय’ के योगदान की प्रशंसा करते हैं.

उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने एक ऐसा न्यायशास्त्र विकसित किया है, जो भारतीय लोकाचार और वास्तविकताओं में निहित है. राष्ट्रपति ने कहा कि संविधान सभा के सदस्यों ने अतीत की घटनाओं के बारे में विचार किया होगा, जैसे ‘हम अपने न्यायिक इतिहास के पिछले 75 वर्षों को देख रहे हैं’.

मुर्मू ने कहा, ”इलबर्ट विधेयक के कटु विरोध और रॉलेट अधिनियम के पारित होने के कारण साम्राज्यवादी अहंकार का सामना करने के अनुभव ने उनकी (संविधान सभा के सदस्यों की) संवेदनशीलता को चोट पहुंचाई होगी.” राष्ट्रपति ने कहा कि उन्होंने (संविधान सभा के सदस्यों ने) स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका को सामाजिक क्रांति की एक शाखा के रूप में देखा, जो समानता के आदर्श को कायम रखेगी.

मुर्मू ने भारत की शीर्ष अदालत से संबंधित तीन पुस्तकों का विमोचन करते हुए कहा, ”समान न्याय सुनिश्चित करना और अब अप्रासंगिक हो चुकी औपनिवेशिक प्रथाओं से छुटकारा पाना हमारी न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत होने चाहिए. स्वतंत्रता-पूर्व न्यायशास्त्र के उपयोगी पहलुओं को जारी रखते हुए हमें विरासत में मिले बोझ को हटा देना चाहिए.” उन्होंने कहा कि ‘जस्टिस फॉर द नेशन’ नाम की पुस्तक में उच्चतम न्यायालय की 75 वर्ष की यात्रा के मुख्य बिंदुओं को दर्शाया गया है. मुर्मू ने कहा, ”इसमें लोगों के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर उच्चतम न्यायालय के प्रभाव का भी वर्णन किया गया है. हमारी न्याय वितरण प्रणाली को एक न्यायपूर्ण और निष्पक्ष समाज के रूप में और मजबूत होना चाहिए.”

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