अमेरिकी टीवी सीरिज ‘डेक्सटर’ से लेकर ‘दृश्यम’ तक के समाज पर प्रभावों को लेकर फिर छिड़ी बहस

मुंबई/नयी दिल्ली. सिनेमा का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है, कई बार यह प्रभाव अच्छा होता है तो कई बार बुरा होता है. दिल्ली में एक व्यक्ति द्वारा अपनी ‘लिव-इन पार्टनर’ की हत्या कर उसके शव के टुकड़े-टुकड़े कर देने का एक मामला पिछले हफ्ते सामने आया है. श्रद्धा वालकर (27) हत्याकांड के आरोपी आफताब पूनावाला (29) ने दावा किया है कि उसने अमेरिकी टेलीविजन सीरीजÞ “डेक्सटर” देखकर हत्या करने और शव के टुकड़े करने का तरीका सीखा.

भारत में भी अपराध पर आधारित फिल्म बनी हैं. इसमें हिंदी फिल्म ‘दृश्यम’ भी शामिल है, जिसका दूसरा ‘सीक्वल’ हाल में रिलीजÞ हुआ है. वहीं, उत्तर प्रदेश के गाजÞयिाबाद में पुलिस ने चार साल पुरानी एक आपराधिक घटना का पता लगाया है. एक युवती ने बताया कि उसकी मां ने किस तरह उसके पिता की हत्या कर दी और शव को घर में ही दफना दिया. इसी तरह की घटना ‘दृश्यम’ फिल्म में भी दिखाई गई है.

लोकनायक जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय अपराधशास्त्र एवं विधि विज्ञान संस्थान में अपराधशास्त्र के प्रोफेसर बी. शेखर ने पीटीआई-भाषा को बताया कि शोध के मुताबिक, जो लोग हिंसा के प्रति संवेदनशील होते हैं, वे फिल्मों से प्रभावित होते हैं. पूनावाला द्वारा कथित रूप से अंजाम दी गई वारदात का खुलासा होने पर पूरा देश स्तब्ध हो गया. पूनावाला छह महीने तक गिरफ्तारी से बचता रहा, मगर उसे पिछले शनिवार को गिरफ्तार कर लिया गया.

दिल्ली पुलिस के अधिकारियों के मुताबिक, पूनावाला का वालकर से शादी के विषय को लेकर झगड़ा हुआ था और आरोपी के मन में उसके शव के टुकड़े-टुकड़े करने का विचार ‘डेक्सटर’ से आया. यह सीरीजÞ एक ‘सीरियल किलर’ पर केंद्रित है. लोगों के आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने के लिए फिल्मों से विचार ग्रहण करने की बात कोई नहीं है, लेकिन जिस बर्बरता और साजिश के जरिए हत्या को अंजाम दिया गया है, उसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है.

वालकर की हत्या हाल की घटना है, मगर इससे पहले भी ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिन्हें अंजाम देने के लिए लोगों ने फिल्मों से विचार लिए. फिल्म इतिसकार एस.एम.एम औसाजा का कहना है कि 1971 में अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘परवाना’ आई थी, जिसमें बच्चन ने जो किरदार निभाया है वह पहले एक प्रेमी रहता है, लेकिन बाद में एक हत्यारा बन जाता है. उन्होंने कहा कि फिल्म में यह किरदार चलती ट्रेन में ओम प्रकाश का कत्ल कर देता है और इस पूरे दृश्य को एक शख्स ने असली जÞंिदगी में अंजाम दे दिया.

औसाजा ने पीटीआई-भाषा से कहा, ‘‘ उस वक्त फिल्म देखकर उसी तरह से हत्या की गई थी. बहुत विवाद हुआ था और बहुत से लोगों ने फिल्म पर रोक लगाने की मांग की थी.’’ दिसंबर 2010 में उत्तराखंड के देहरादून में एक शख्स ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी और उसके शव के 70 से ज्यादा टुकड़े कर दिये. पुलिस के अनुसार, आरोपी आॅस्कर पुरस्कार पाने वाली फिल्म ‘द साइलेंस आॅफ लैम्ब्स’ से प्रभावित था. फिल्म में अभिनेता एंथोनी हॉपंिकस को नरभक्षी सीरियल किलर की भूमिका में दिखाया गया है.

अपराधशास्त्री शेखर ने कहा कि टीवी कार्यक्रमों और फिल्मों में हत्या करने और विकृत करने के हिस्से को बहुत हल्के और सामान्य तरीके से दिखाया जाता है. लूट की घटनाओं पर आधारित कई फिल्में हैं. आईसीआईसीआई बैंक के एक अधिकारी ने पिछले महीने पुणे में एक बैंक से 34 करोड़ रुपये लूट लिए. आरोप है कि वह स्पेनिश सीरीजÞ ‘ मनी हीस्ट’ से प्रभावित था.

हालांकि, औसाजा ने कहा कि समाज में होने वाली आपराधिक घटनाओं के लिए सिनेमा को कसूरवार ठहराना गलत है. उन्होंने कहा, ‘‘ आपको सिनेमा, साहित्य और कला से सकारात्मक चीजÞें सीखनी चाहिए.’’ उनके मुताबिक, एक बीमार और असामान्य व्यक्ति ही नकारात्मक चीजÞें सीख सकता है और असली जिंदगी में उन्हें आजमा सकता है और इसके लिए फिल्मों को दोष देना सही नहीं है.
‘दृश्यम’ मूल रूप से 2013 में मलयालम में बनी थी. ऐसा लगता है कि इसने एक से ज्यादा घटनाओं को अंजाम देने के लिए लोगों को प्रभावित किया है.

साल 2013 में केरल में एक व्यक्ति ने झगड़े के बाद अपने भाई की हत्या कर दी और फिर अपनी मां और पत्नी की मदद से घर के पिछवाड़े में उसके शव को दफना दिया. ‘दृश्यम’ बॉक्स आॅफिस पर कामयाब फिल्म साबित हुई है और तेलुगू, तमिल और हिंदी में इसके रीमेक बने हैं. हिंदी में ‘दृश्यम 2’ इस शुक्रवार को रिलीज हुई है. इसमें अभिनेता अजय देवगन मुख्य भूमिका में हैं. इसके निर्देशक अभिषेक पाठक ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोग आपराधिक घटनाओं पर आधारित ऐसी फिल्म से प्रभावित होते हैं और ‘‘भयावह’’ घटनाओं को अंजाम देते हैं.

पाठक ने पीटीआई-भाषा से कहा, ‘‘ आपराधिक घटनाओं पर आधारित फिल्में आपको रोमांच महसूस कराने के लिए हैं. हम जो कुछ भी फिल्म में करते हैं, उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए. अन्य फिल्में भी हैं, जो हम प्रेरित करने के लिए बनाते हैं और उन्हें एक मिसाल के तौर पर लेना चाहिए.’’ उन्होंने कहा कि ऐसी हिंसक घटनाओं के लिए मनोरंजन जगत को दोषी ठहराना सही नहीं है और अपराधी अपने हिसाब से चीजÞों को अपनाता है.

निर्देशक नीरज पांडे का मानना है कि मीडिया चीजों को संदर्भ से हटा कर प्रस्तुत करने के लिए जिम्मेदार है, वह एक मकसद के साथ फिल्मों और ‘शो’ के नामों का इस्तेमाल असल जिंदगी की घटनाओं के समांनतर रख कर करता है. उन्होंने कहा, ‘‘फिल्म में एक सीबीआई अधिकारी भी है. लोगों ने उससे क्यों नहीं यह सीखा कि उसने चीजों को कैसे ढूंढा? आपको चुंिनदा रुख नहीं रखना चाहिए.’’

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