यूक्रेन के खिलाफ जंग में हजारों सैनिकों की भर्ती कर रहा है रूस, लेकिन घट रहा है पुतिन का जनसमर्थन

बोस्टन. रूस ने भले ही यूक्रेन पर अपना हमला तेज कर दिया हो लेकिन उसकी सेना सैनिकों के हताहत होने और सैन्य उपकरणों/सामग्री की आपूर्ति में कमी की समस्या से दो-चार हो रही है. गौरतलब है कि 11 अक्टूबर, 2022 को सात देशों… अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और ब्रिटेन.. के समूह ने आपात बैठक बुलायी और यूक्रेन पर रूस के ताजा हमलों का विरोध किया.

रूस का ताजा हमला नौ अक्टूबर, 2022 से शुरू हुआ है, जिसमें यूक्रेन के असैन्य बुनियादी ढांचे और विभिन्न शहरों को निशाना बनाया जा रहा है. करीब आठ महीने से दोनों देशों की बीच जारी युद्ध का यह और वीभत्स दौर हो सकता है. यूक्रेन पर यह हमला शुरू होने से बहुत पहले ही हालांकि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अपने सैनिकों की कम संख्या पर संज्ञान लिया और 21 सितंबर, 2022 को एक आंशिक मसौदे को मंजूरी दी तथा 3,00,000 अतिरिक्त सैनिकों की भर्ती/तैनाती को मंजूरी दी. कई विशेषज्ञ हालांकि इसे अवैध हमला मान रहे हैं. अभी तक रूस से मिली सूचनाओं के अनुसार, सेना में करीब 2,00,000 नये सैनिकों की भर्ती की गई है.

पुतिन के इस मसौदे से रूस के लोगों में असंतोष की नयी लहर पैदा हुई है. हजारों की संख्या में रूसी नागरिक देश छोड़कर भाग रहे हैं. यहां तक कि रूस में कई सैन्य भर्ती केन्द्रों पर हिंसक हमले भी हुए हैं. क्रेमलिन सेना में भर्ती के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों को दबाने का प्रयास कर रहा है और उसने 2,400 से ज्यादा प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार भी किया है. इसबीच, रूस के शीर्ष स्वतंत्र मतदान समूह ‘लेवाडा सेंटर’ द्वारा कराए गए जनमत संग्रह के अनुसार, पुतिन और ‘विशेष सैन्य अभियान’ (यूक्रेन युद्ध) को बहुमत का समर्थन मिल रहा है.

लेकिन रूसी मामलों और जनमत के एक विद्वान के रूप में, मुझे लगता है कि राष्ट्रपति की सार्वजनिक स्वीकृति और यूक्रेन पर हमला, लामबंदी के आलोक में बदल रहा है, क्योंकि अधिक परिवार शत्रुता से बिखर गए हैं. फरवरी, 2022 में यूक्रेन पर हमला शुरू होने के बाद से इसके प्रति ज्यादातर रूसी नागरिकों का रवैया सहानुभूतिपूर्ण या उदासीन रहा है. जनता बहुत तेजी से इस मामले में पुतिन के साथ हो गई और युद्ध जल्दी ही रूसी नागरिकों की रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा बन गया.

जनमत संग्रह के दौरान करीब 50 प्रतिशत रूसी नागरिक लगातार कहते रहे हैं कि वे यूक्रेन में रूस के सैन्य अभियान का ‘पुख्ता’ समर्थन करते हैं, वहीं 30 प्रतिशत ऐसे हैं जो अन्य विकल्प के स्थान पर इसका ‘समर्थन करना चुनेंगे’ और सिर्फ 20 फीसदी ऐसे हैं जो इस सैन्य अभियान का समर्थन नहीं करते हैं.

रूस की जनता ने क्रेमलिन के साथ एक अलिखित सामाजिक अनुबंध के तहत इस युद्ध को काफी हद तक स्वीकार कर लिया है, जिसमें लोग शासन की बात मानते हैं और बदले में उन्हें बेहतर जीवनस्तर और निजी जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप जैसी चीजें मिलती हैं. रूसी नागरिक सामान्य तौर पर रूस की सरकारी मीडिया द्वारा युद्ध के संबंध में दी जाने वाली खबरों को सुनना/देखना पसंद करते हैं, वे अन्य सूत्रों से आने वाली नकारात्मक खबरों से दूरी बनाए रखते हैं.

गौरतलब है कि 20 सितंबर, 2022 को रूस ने जब पूर्वी और दक्षिणी यूक्रेन के चार क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया तो पुतिन ने अपने भाषण में सार्वजनिक रूप से रूस के ‘पश्चिमी दुश्मनों’ का उल्लेख किया. उन्होंने पश्चिमी देशों पर ‘कीव की सत्ता’ की मदद करने और यूक्रेन के डोनबास क्षेत्र में ‘अमानवीय आतंकवादी हमले’ करने का आरोप लगाया. ऐसा करते पुतिन ने युद्ध की मुश्किलों/तकलीफों को सही ठहराने का प्रयास किया और यह दिखाने की कोशिश की, कि रूस के लोग अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं.

रूस के लोग अब भी पूरी शिद्दत से मानते हैं कि पश्चिमी देश उनके प्रति आक्रामक रवैया रखते हैं और यह युद्ध आत्मरक्षा के लिए है. अगस्त, 2022 में सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 71 फीसदी लोगों ने कहा था कि अमेरिका के प्रति उनके विचार नकारात्मक हैं और 66 प्रतिशत लोग यूक्रेन के प्रति नकारात्मक विचार रखते हैं. कुछ समाज शास्त्रियों का हालांकि तर्क है कि रूस में होने वाले जनमतसंग्रह पूरी तरह भरोसेमंद नहीं हो सकते क्योंकि उनमें तमाम कारक शामिल हैं.

यूक्रेन युद्ध: दुनिया रूस को यूक्रेन के जीते हुए क्षेत्र रखने नहीं दे सकती है

लंदन. यूक्रेन के चार प्रांत को अपने देश में मिलाने के रूस के कदम की अंतरराष्ट्रीय समुदाय के ज्यादातर सदस्यों ने निंदा की है और इसे अवैध बताया है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने रूसी समकक्ष व्लादिमीर पुतिन पर यूक्रेन के क्षेत्र पर फर्जी दावा करने का आरोप लगाते हुए कहा कि यह कदम संयुक्त राष्ट्र चार्टर को कुचल देगा और हर जगह शांतिपूर्ण राष्ट्रों की अवधारणा की उपेक्षा करता है.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में ब्रिटेन की मानवाधिकार राजदूत रिता फ्रेंच ने रूस के कदम की निंदा की और इसे संप्रभु यूक्रेन के क्षेत्र को बिना वजह और अवैध तरीके से हड़पना करार दिया. रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने उनके देश की ओर से उठाए गए कदम की पश्चिमी देशों द्वारा निंदा किए जाने को ‘झल्लाहट’ बताया है और कहा है कि कोई भी संप्रभु, स्वाभिमानी राष्ट्र जो अपने लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को महसूस करता है, यही करता.

संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत ंिलडा थॉमस-ग्रीनफिल्ड ने कहा कि अगर यूक्रेन के क्षेत्र को अपने देश में मिलाने के रूस के कदम को स्वीकार कर लिया जाता है तो यह भानुमति के पिटारे को खोलने जैसा होगा जिसे हम बंद नहीं कर सकते हैं. क्षेत्रों पर दावों को समझने के लिए, ऐतिहासिक रिकॉर्ड को देखा जाना आवश्यक है.

रूस की ओर से इन क्षेत्रों को अपने में मिलाना बहुत असामान्य बात है, खासकर 1945 के बाद से. करीब-करीब ऐसा कभी नहीं हुआ है कि कोई देश फौज के दम पर विजेता हुआ हो और फिर उसने बड़ी आबादी वाले इलाके को अपने देश में मिला लिया हो जैसा यूक्रेन में देखने को मिला है. हालांकि कुछ बार ऐसा हुआ है, मगर ऐसे मामलों पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय करीब करीब हर बार एक साथ आया है और उसने ऐसी स्थिति को कभी मान्यता नहीं दी.

साल 1974 में जब इंडोनेशिया ने ईस्ट तिमोर पर हमला किया और उसपर कब्जा कर लिया, तो इसकी निंदा की गई और वर्षों तक इसे मान्यता नहीं दी गई. आखिरकार 2002 में संयुक्त राष्ट्र प्रायोजित जनमत संग्रह के जरिए नया स्वतंत्र राष्ट्र तिमोर-लेस्त अस्तित्व में आया. वर्ष 1967 में इजÞराइल ने जिन क्षेत्रों को कब्जाया था और 1974 में तुर्कीय ने साइप्रस के जिन उत्तरी हिस्सों पर कब्जा किया था, उन्हें दशकों से मान्यता नहीं दी गई है.

रूस ने ही 2014 में क्रीमिया को अपने देशा में मिला लिया था जो जÞमीन कब्जÞाने की मिसाल है जिसे मान्यता नहीं दी गई है.
हालांकि मान्यता न देने से कोई खास प्रभाव तो नहीं पड़ता है, खासकर रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों और यूक्रेन को हथियार और उपकरण उपलब्ध कराने की तुलना में. मगर मान्यता न देना हर किसी को यह आश्वस्त करता है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ऐसे विश्व को महत्व देता है जहां युद्ध न हो.

अगर इन क्षेत्रों को रखने की रूस को अनुमति दे दी जाए तो क्या होगा– शायद शांति वार्ता के तहत? पुतिन ने कहा है कि शांति वार्ता अब शुरू की जा सकती है लेकिन उसके द्वारा अपने देश में शामिल किए गए क्षेत्र बातचीत की मेजÞ पर नहीं होंगे. अगर रूस इन क्षेत्रों (साथ ही क्रीमिया) पर अधिकार प्राप्त करता है क्योंकि उसने उन्हें युद्ध में जीत लिया है, और इन अधिकारों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय स्वीकार कर लेता है तो फिर इस बात की प्रबल संभावना है कि कोई भी देश जीते हुए इलाकों को छोड़ना नहीं चाहेगा.

साल 1935 में, बेनिटो मुसोलिनी के शासन के तहत इटली ने इथोपिया पर हमला कर दिया था. तब ‘लीग ऑफ नेशंस’ और अमेरिका ने हमले की निंदा की थी और इथोपिया के लिए अपने समर्थन का ऐलान किया था. इटली पर समन्वित आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए थे. मगर ब्रिटेन और फ्रांस के विदेश मंत्रियों ने युद्ध खत्म करने के लिए मुसोलिनी के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया था.

इसके तहत इथोपिया ने अपना अधिकांश क्षेत्र इटली को सौंप दिया और मुसोलिनी को देश के बाकी हिस्सों पर आर्थिक नियंत्रण सौंप दिया. जब यह समझौता सार्वजनिक हुआ तो दुनिया भर के लोगों ने इसकी सराहना नहीं की बल्कि उन्होंने माना कि हमलावर देश इटली को पुरस्कृत किया जा रहा है, क्योंकि उसने युद्ध भूमि में जीत हासिल की है जो आक्रमण का विरोध करने के सिद्धांत के खिलाफ है.

इसका विरोध इतना प्रचंड था कि ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारों को अपनी योजना त्यागनी पड़ी और दोनों देशों के विदेश मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा. इसके एक महीने बाद अमेरिका ने इटली को हथियारों की बिक्री पर लगी रोक को हटा दिया और लीग ऑफ नेशंस ने प्रतिबंध खत्म करने के लिए मतदान किया. हालांकि, अमेरिका, सोवियत संघ और कुछ अन्य देशों ने पूर्वी अफ्रीका में इटली के साम्राज्य को मान्यता देने से इनकार कर दिया.

इसके बाद होंडुरास, निकारागुआ, चिली, वेनेजुएला, स्पेन और हंगरी ने लीग ऑफ नेशंस को छोड़ दिया. डेनमार्क, स्वीडन, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड और बेल्जियम ने कहा कि वे अब लीग की सामूहिक सुरक्षा में भाग नहीं लेंगे. इसका अर्थ यह था कि अगर हिटलर के शासन वाले जर्मनी, जैसे देशों की मांग को मानेंगे तो आप अकेले रह जाएंगे . इसलिए अंतरराष्ट्रीय समाज के एक जिम्मेदार सदस्य बनिए.

इन ऐतिहासिक घटनाओं से सबक मिलता है इस सिद्धांत को कायम रखना कि विजय देश अपने जीते हुए इलाके छोड़ना नहीं चाहता है.
मान्यता नहीं देना इसलिए जरूरी है कि विजेता को जंग में जीत के बाद इलाकों पर अधिकार नहीं दिया जा सकता है. अगर रूस को हथियारों के बल पर जीते हुए क्षेत्र अपने पास रखने दिए जाते हैं तो छोटे देशों को लगेगा कि उन्हें खुद को हथियारों से लैस करने की जरूरत है. हम यह फिनलैंड और स्वीडन के मामले में देख चुके हैं जिन्होंने नाटो में शामिल होने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए. युद्ध भूमि में जीत यह संदेश देगी कि ताकतवर ही सही है. यह शांतिपूर्ण और सुरक्षित भविष्य के लिए अच्छा नहीं है.

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