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‘हिंग्लिश’ अब मुख्यधारा की भाषा बन गई है : उपन्यासकार शोभा डे

थिम्पू. लोकप्रिय उपन्यासकार शोभा डे का मानना है कि औपनिवेशिक मानसिकता ही वह कारण है जिसके कारण कुछ लोग भारत में अब भी ब्रिटेन की महारानी की ”पुरानी और पुरातन” अंग्रेजी का उपयोग करते हैं. शोभा डे का कहना है कि भारत में ‘हिंग्लिश’ (हिंदी और अंग्रेजी का मिश्रित स्वरूप) के प्रचलन का वह समर्थन करती हैं और उनका मानना है कि यह देश में संचार का अधिक प्रभावी तरीका है.

शोभा डे ने यहां चल रहे ”भूटान इकोज.: ड्रुक्युल्स लिटरेचर फेस्टिवल” के 13वें संस्करण में रविवार को कहा, ” किसी भी भाषा की सम्पूर्ण सुन्दरता उसकी प्रवाहमयता में ही निहित है और उन्होंने हिन्दी तथा अन्य भाषाओं – जिनमें मराठी, बंगाली, गुजराती और तमिल भी शामिल हैं – को अंग्रेजी के साथ प्रयोग करना शुरू कर दिया, क्योंकि भारत में लोग इसी तरह बोलते हैं. ” डे को ‘हिंग्लिश’ (हिंदी और अंग्रेजी का मिश्रित स्वरूप) के प्रचलन को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है.

उपन्यासकार ने कहा, ”हम चार्ल्स डिकेंस नहीं हैं और मैं जेन ऑस्टेन नहीं हूं, मैं जिस तरह से बोलती हूं, उसी तरह से लिखती भी हूं और मैंने इन शब्दों का इस्तेमाल बहुत सोच-समझकर करना शुरू किया क्योंकि मुझे लगा कि यह ज़्यादा प्रभावी ढंग से संवाद करने का बेहतर तरीका है. यह एक सड़क पर बोली जाने वाली भाषा है, यहां हमारे आस-पास के लोग इसी तरह बोलते हैं.” उन्होंने यहां एक सत्र में चर्चा के दौरान कहा, ”मुझे बहुत खुशी होती है जब मेरे द्वारा इस्तेमाल किया गया शब्द किसी बातचीत में आता है. हिंग्लिश अब मुख्यधारा में आ गई है. हमारे ज़्यादातर बड़े प्रकाशन और अखबार हेडलाइन में हिंग्लिश का इस्तेमाल करते हैं, जो पहले अकल्पनीय था. ” हिंग्लिश हिंदी और अंग्रेजी से बनी एक मिश्रित भाषा है.

लेखिका (76) ने याद किया कि कैसे उनकी पुस्तकों और स्तंभों में हिंग्लिश के प्रयोग को लेकर उनकी आलोचना की गई थी और कैसे आज भी भारत में कुछ लोग ब्रिटेन की महारानी की ”पुरानी और पुरातन” अंग्रेजी को छोड़ने से इनकार करते हैं. उन्होंने कहा, ” महारानी की अंग्रेजी अभिव्यक्ति का इतना पुराना, अप्रचलित और पुरातन तरीका है कि अब अंग्रेज भी उसे नहीं लिखेंगे. लेकिन भारत में ब्रिटेन से प्रभावित कुछ लोग इस तरह से लिखना जारी रखते हैं और वे अपनी पूरी औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ने से इनकार करते हैं.”

काल्पनिक और गैर-काल्पनिक समेत 20 से अधिक पुस्तकों की लेखिका ने अपने गृह नगर मुंबई की भी प्रशंसा की, जो जाति, प्रभाव या वंश के किसी भी बोझ के बिना, व्यक्तियों को उनके वास्तविक रूप में स्वीकार करता है. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने मुंबई की तुलना दिल्ली और कोलकाता जैसे अन्य प्रमुख मेट्रो शहरों से की, जिनके बारे में उन्होंने कहा कि ये शहर क्रमश: सत्ता और वंशवाद से ग्रस्त हैं.

शोभा डे ने कहा, ”दक्षिण भारत के लोग, जो जाति से ग्रस्त हैं. मुंबई में कोई भी इसकी परवाह नहीं करता. यह बहुत जातिविहीन है… मुंबई में हर किसी को मौका मिलता है. आप जो प्रतिनिधित्व करते हैं, एक व्यक्ति के रूप में आप जिसके लिए खड़े होते हैं, उसका सम्मान किया जाएगा. इसलिए मुंबई इस मामले में बहुत बढ़िया है, यह बिल्कुल समान है. ”

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